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महत्व । हर एक कार्य का। कौन सा कार्य महत्वपूर्ण है? which action/ profession should I do? Karma Philosophy | The Romanch

महत्व । हर एक कार्य का

 
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वनपर्व (महाभारत) मे महर्षि मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को सुनाई गई एक कथा जिसमें वो कर्म के महत्व पर चर्चा करते हैं।


एक बार एक मुनि थे कौशिक। वे परमज्ञानी, महान मुनि थे जिन्हें अपने तप का अपार अहंकार था। एक बार जब वे एक वृक्ष के नीचे ध्यान मे मग्न थे, तभी एक चिड़िया ने उनके ऊपर बीट कर दी। महामुनि का ध्यान भंग हो गया। वे क्रोध से तमतमा उठे। उनकी लाल आंखो ने जैसे ही चिड़िया को देखा, वैसे ही चिड़िया नीचे जमीन पर गिर गई और तड़पने लगी। तड़प-तड़प कर चिड़िया कुछ ही देर मे मर गई। महर्षि के साथ किए अपराध का दंड उसे प्राण देकर चुकाना पड़ा।

चिड़िया के मरने पर कौशिक का क्रोध शांत हुआ। उसके जले हुए शरीर को देखकर उनके हृदय मे दया का भाव आया। पीड़ा हुई। वे अपने कार्य पर बहुत पछताए किंतु अब पछताने से क्या हो सकता था। उनका ध्यान भंग हो चुका था। वे दोबारा नहीं बैठे और कुछ भिक्षा के लिए चल दिए।

कई द्वारों पर भिक्षा मांगकर वे एक स्त्री के द्वार पर पहुंचे और आवाज लगाई। “भिक्षा दो माई!” अंदर से स्त्री ने जबाब दिया “हां अभी आई बाबा। प्रतीक्षा करो।”

कौशिक काफी देर तक प्रतीक्षा करते रहे किंतु स्त्री नहीं आई। स्त्री उस समय अपने पति को भोजन करा रही थी। उसके लिए अपने पति को भोजन कराना अधिक महत्वपूर्ण था। जैसे ही उसका पति भोजन कर चुका, स्त्री भिक्षा लेकर बाहर आई। इतनी देर मे कौशिक मुनि को क्रोध आ गया था। उन्होने कहा, “यदि तुम्हें भिक्षा नहीं देनी थी तो पहले ही कह देती, यूं मुझे रोककर मेरा अपमान करने की क्या आवश्यकता थी। शायद तुझे मेरा क्रोध पता नहीं है। अभी तुझे बताता हूं।”

कौशिक मुनि ने अपने कमण्डल से जल निकाला और श्राप देने चले किंतु उसी समय उस स्त्री मे न जाने कहां की ऊर्जा आ गई। उसने कहा, “आपको क्या लगता है कि आप किसी को भी समाप्त कर देंगे? मै कोई छोटी चिड़िया नहीं हूं जिसे आप देखकर भस्म कर देंगे।”

कौशिक हैरान थे। उनका क्रोध गायब हो गया। “हे प्रभू! इस स्त्री को कैसे पता कि मैंने उस चिड़िया को भस्म किया है।” वे हाथ जोड़कर खड़े हो गए। “हे देवी” उन्होनें उस स्त्री से कहा, “आप मुझे बताइए कि आपको यह कैसे पता चला। आपमे ऐसी कौन सी शक्ति है जिसके बल से आपको भय नहीं लगा।”

स्त्री ने कहा, “महात्मा आपको धर्म की सूक्ष्मता का ज्ञान नहीं है। आप मिथिला जाइए और वहां आपको धर्मव्याध धर्म की शिक्षा देगा।”

कौशिक मुनि वहां से तुरंत ही मिथिला पहुंच गए और लोगों से धर्मव्याध का पता पूछने लगे। उन्हें पता चला कि धर्मव्याध कोई कसाई है जो सुवर भैंस आदि का मांस बेचता है। उन्हें मांस के बाजार मे जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी किंतु वे कैसे भी करके गए। वहां जाकर उन्होनें देखा कि चारों तरफ मांस ही मांस रखा हुआ है। कौशिक कैसे भी करके व्याध तक पहुंचे। उनको देखते ही व्याध उठ खड़ा हुआ और बोला, “महामुनि! ये स्थान आपके लिए नहीं है। मुझे ज्ञात है कि आपको उस स्त्री ने यहां भेजा है। आप बताइए कि मै आपकी क्या सेवा कर सकता हूं।”

कौशिक फिर से हैरान थे। इस बार उनसे मुंह से निकल पड़ा, “तुम्हें कैसे मालुम कि उस स्त्री ने क्या कहा है?”

व्याध मुस्कुराया और उसने मुनि को अपने साथ आने का आग्रह किया। दोनों बाजार से बाहर निकलकर उस कसाई के घर की तरफ पहुंच गए।

कौशिक को बैठाकर व्याध अपने घर चला गया। वहां उसने कुछ समय लगाया किंतु इस बार कौशिक को क्रोध नहीं आया। फिर जब वह लौटा तो उसने कौशिक का स्वागत किया। हाथ जोड़कर व्याध ने पूछा, “महामुनि! अब आप बताइए कि मै आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?”

कौशिक ने अनेकों प्रश्नों की बौछार कर दी, “तुम्हें कैसे पता कि उस स्त्री ने मुझे यहां भेजा है? उस स्त्री को कैसे पता कि मैंने उस चिड़िया को भस्म किया है और भला तुम मुझे धर्म का कौन सा ज्ञान दे सकते हो जबकि तुम स्वयं मांस के व्यापार जैसा निकृष्ट कार्य करते हो?”

व्याध उसकी बात तत्परता से सुनता रहा। उसने बड़ी ही गम्भीरता से कहा, “महामुनि! मेरे बूढ़े माता-पिता हैं। मै उनकी सेवा करता हूं। उनको खिलाने के बाद खाता हूं। मै अनावश्यक हिंसा नहीं करता हूं। किसी पर अनावश्यक क्रोध नहीं करता हूं और तभी मुझपर देवों की कृपा है। मुझे बिना किसी चमत्कार के स्वतः ज्ञात हो गया कि उस स्त्री ने आपको मेरे पास भेजा है। आप महाज्ञानी हैं। आपको सभी विषयों का ज्ञान है किंतु आप क्रोध करते हैं। आप दूसरों को धर्म का उपदेश अधिक देते हैं किंतु स्वयं उस पर स्थिर नहीं रह पाते। आप दूसरों को अपने समक्ष तुच्छ समझते हैं। सम्भवतः यही आपकी समस्या का कारण है। अब आपके सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर। यह मांस बेचने का कार्य  मेरे पूर्वजों ने किया है। यह मैंने विरासत मे पाया है। मै जानता हूं कि यह कार्य मै सबसे अधिक बेहतर तरीके से कर सकता हूं। इसीलिए यह कार्य करता हूं। जिस कार्य मे दूसरे इन जीवों को अधिक पीड़ा दे सकते हैं वह मै कम पीड़ा देकर करता हूं। यही मेरा धर्म है।

कौशिक को ज्ञान हो गया। वे समझ गए कि दूसरे पर क्रोध न करना और स्वयं के कार्य को तत्परता से करना ही सबसे बड़ा धर्म है। वे पुनः तपस्या के लिए चले गए।

आज के दौर मे यह कथा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज सभी एक दूसरे के कार्यों से प्रभावित होते हैं। किसी को अन्य का कार्य अधिक आकर्षक लगता है तो किसी को निकृष्ट। कुछ अपने कार्य को हीन समझते हैं। उन्हें लगता है कि वे गलत कार्य कर रहे या गलत धंधे मे आ गए।

सच तो यह है कि यदि आपको ऐसा लगता है कि आप गलत कार्य मे हैं तो आप बिल्कुल सही कार्य मे हैं। आप वहां रहकर औरों से बेहतर कर सकते हैं। आप गलत को सही कर सकते हैं। बिना किसी संकोच के अपना कार्य तत्परता और श्रद्धा से करना ही धर्म का सबसे बड़ा कार्य है।

महत्व इस बात का नहीं कि आप जो कार्य कर रहे वो अभी सही है या नहीं, महत्व इस बात का है कि आप अपने कार्य को सही से कर रहे या नहीं।


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