विक्षिप्त
सावन के पहले सप्ताह की भारी वर्षा ने शिगोहा की टूटी सड़क को कीचड़ से भर दिया था। मार्ग मे जगह-जगह गड्ढ़े हो गए थे जिनमे पानी भरा हुआ था।
आज सवेरे से मौसम कुछ शांत सा था किंतु दोपहर होते-होते मेघोंं के झुंड फिर से आसमान की नीलिमा को घेरने मे सक्षम हो गए और कुछ ही देर मे अनंत आकाश के आंसू धरती के वक्ष को भिगोने लगे।
स्मिता कॉलेज मे दाखिला लेकर लौट रही थी लेकिन वर्षा की बूंदो से अपने महत्वपूर्ण कागजों को बचाने के उद्देश्य से वह चिलवल की घनी छाया के नीचे खड़ी हो गई किन्तु वर्षा की चंचल बूंदोंं ने पत्तियों का रोकना ना माना और धीरे-धीरे टपकने लगी।
सत्रह साल की उस नवयौवना की विकसित होती काया अपने वक्ष मे उन कागजों को समेटे ईश्वर से इस वर्षा के रुकने की सतत याचना कर रही थी किंतु देवेंद्र ने आज ना रुकने का ठान रखा था।
जहां एक ओर स्मिता का हृदय बारम्बार इस वर्षा को कोस रहा था वहीं थोड़ी दूर पर साइकिल से आते राकेश का तन-मन इस वर्षा का आनंद ले रहा था। उन्नीस साल का वह नवयुवक उसी कॉलेज मे पढ़ता था जहां स्मिता ने आज दाखिला लिया था। कक्षा मे वह कुछ आगे था और आज कुछ देरी से निकला था तभी इस समय आ रहा था।
साइकिल मे पीछे एक बैग मे अपनी किताबें रखकर वह झूमता आ रहा था कि उसकी नजर किनारे पेड़ के नीचे खड़ी स्मिता पर पड़ी। दूर से ही उसने आने का इशारा किया किंतु लड़की ने इंकार कर दिया तो वह पास आ गया।
राकेश- "स्मिता? तुम स्मिता ही हो ना?"
और फिर ध्यान से एक बार देखकर उसने बिना रुके कहना प्रारम्भ रखा,"ये बारिश रुकने वाली नहीं लगती आज तो अपनी किताबें इस बैग मे डाल दो और खुद पीछे बैठ जाओ। अकेली कब तक खड़ी रहोगी?"
परिस्थिति की प्रतिकूलता को देखते हुए स्मिता ने अनमने ढंग से अपने कागजोंं को राकेश के बैग मे रखा और उसे हाथ मे पकड़ के पीछे बैठ गई और राकेश फिर से मस्ती से झूमता, गाना गाते हुए चलने लगा।
स्मिता की पहले दिन की असहजता धीरे-धीरे कम हो गई और राकेश का रोमांच बढ़ता गया। अब कॉलेज से लौटते हर दिन उसकी साइकिल पर स्मिता का बैठना दोनों के लिए स्वाभाविक हो गया और विपरीत लिंगो का यह आकर्षण कब प्रेम मे परिणत हुआ यह दोनों को ही पता ना लगा।
पिछले चार महीने मे स्मिता और राकेश ने एक दूसरे को ना जाने कितने आलिंगन दिए, प्रेम के कितने सजीले पारितोषिक दिए, एक दूसरे मे कितना रमे रहे। आकलन करना कठिन है किंतु वास्तव मे उन दोनों का मधुर प्रेम उनके चेहरे की प्रसन्नता व उत्साह से परिलक्षित हो जाता था जब वे एक दूसरे को मिलते थे।
एक दिन रास्ते पर पड़ने वाले एक बगीचे मे राकेश को अपनी गोद मे लिटा के स्मिता ने उससे अपना कष्ट जाहिर किया।
स्मिता- "राकेश!"
"हूं"
"तुम जानते हो ना कि हमारे गांव का माहौल कैसा है?"
"बहुत सुंदर, बिल्कुल तुम्हारे जितना" राकेश ने उसकी हथेली चूम ली।
"तुम समझ नही रहे" स्मिता पुट मे चिंता के भाव मिश्रित कर रही थी। "हमारे यहां हमे एक दूसरे से मिलने से रोक दिया जाएगा।"
राकेश उठकर बैठ गया। उसने इतने दिनों मे यह बहुत सोचा था। गांवो मे जाति और गोत्र का बहुत चलन है। गोत्र को लेकर कितनी हत्याएं, कितने कत्ल हो गए। उसने स्मिता को खींचकर अपने सीने से लगा लिया।
राकेश का कॉलेज पूरा हो गया था। उसे अब शहर जाना था और स्मिता के लिए उसका वियोग असहनीय था। उसने अपने घर पर बात करने का प्रयास किया था किंतु उसे अतीत की दुःखद घटनाओं से यह पता चल चुका था कि उसकी बात कभी नहीं सुनी जाएगी। उसने अपना निर्णय कर लिया था।
दो वर्ष बीत गए थे। स्मिता का पेट अब स्पष्ट दिखने लगा था। आठवां महीना चढ़ा था। आज उसे दर्द हो रहा था और राकेश डॉक्टर को बुलाने गया था। पलंग पर लेटी-लेटी स्मिता स्मृति के चलचित्रोंं का अवलोकन कर रही थी।
दो साल पहले जब उसने राकेश के साथ घर से भागना सोचा था तब उसके मन मे भविष्य को लेकर अनेकों आशंकाएं थी। कहां जाना है, कैसे रहना है, क्या वे दोनों रह पाएंगे, किसी परिवार वाले के बिना रहना कैसे होगा, अनेकों प्रश्न थे किंतु राकेश और उसके संकल्प और हिम्मत ने हर समस्या से जीत दिलाया।
गांव से सैकड़ो मील दूर इस शहर मे राकेश ने एक प्राइवेट स्कूल मे पढ़ाना शुरू कर दिया था और स्मिता घर मे रहती थी। जिंदगी सही से चल रही थी छोटी-मोटी समस्याओं के साथ। थोड़ी ही देर मे डॉक्टर आ गई।
राकेश-"देखिए मैम आज सुबह से ही दर्द हो रहा है।" उसकी चिंता जायज थी।
डॉक्टर-"चलो मै आ गई हूंं। देखती हूं कि क्या है"
कुछ निरीक्षण करके डॉक्टर ने कहा,"लगता है जैसे समय आ गया है। इसे लेकर अस्पताल चलो।
राकेश ने हां मे सिर हिलाकर तैयारी शुरू कर दी।
स्मिता के घर से निकलने के बाद से ही उसका भाई मोहित और पिता बलदेव उसे खोज रहे थे। बदनामी और अपमान का जहर उनके रक्त मे क्रोध बनके उबल रहा था। कई शहरों, गांवो, कस्बों मे खोजने के बाद जब वह न मिली तो उन्होने घर लौटना उचित समझा। यद्यपि वे गांव लौट गए थे किंतु उनके कुछ लोग अब भी सक्रिय थे और आज अचानक घंटी बजी।
अस्पताल मे परेशानी से इधर-उधर टहलता राकेश बार-बार दरवाजे की तरफ देखता जहां स्मिता को रखा गया था। उसकी व्याकुलता चरम पर थी और धैर्य शून्य। बार-बार अंदर से बाहर आते कर्मचारियों से कुछ पूछना चाहता किंतु उचित प्रश्न ना चुन पाता और स्वयं मे भ्रमित सा खड़ा रह जाता।
आधे घंटे की युगप्रतीक्षा का अंत हुआ और बालक के रोने की आनंददायक ध्वनि आई। राकेश के सम्पूर्ण शरीर मे रोमांच का अद्भुत संचार हुआ। प्रेम और करुणा का प्रवाह उसको भावविहल कर गया और कंठ ने स्वर का साथ छोड़ दिया। जीवन की सम्पूर्ण तपस्या का जैसे फल मिला हो उस पिता को जो अंदर जाकर अपने पुत्र को देखने के लिए छटपटा रहा था। भावना की असाधारण तीव्रता का वेग जब उससे ना सहा गया तो वह लगभग दौड़ते हुए अंदर की चला कि एकदम से वह रुक गया।उसकी उत्साहित भावना शून्य तथा आंखो की ज्योति काली हो गई थी। तीव्रता का मार्ग अवरुद्ध हो चुका था और अभिलाषाओं की लहरें शांत। 'धांंय' के एक उच्च शोर से सारा अस्पताल सन्न हो गया। रक्त की फुहार राकेश के सिर के पिछले हिस्से से निकलकर उसकी पीठ से होते हुए फर्श को लाल कर रही थी। धम्म की एक आवाज के साथ राकेश फर्श पर गिरा। पल भर मे उसके प्राणों ने उसका शरीर छोड़ दिया था।
इस भयानक दृश्य को देखकर सन्न खड़े अस्पताल के कर्मचारियों ने मुख्य गेट की तरफ देखा तो पांच लड़कों का एक समूह खड़ा था जिसके सबसे आगे के लड़के के हाथ मे बंदूक थी। भावनाशून्य खड़े उस लड़के ने बिना कोई शब्द कहे अपनी बंदूक नीचे रख दी जब उसने सामने एक बच्चे को अपनी गोद मे लिए विक्षिप्त स्मिता को देखा।
(समाप्त)
Good work
ReplyDeleteBahut achchha keep it up
ReplyDelete😥😥😥
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