ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग
ओंकारेश्वर महादेव की कथा
भगवान शिव के चौथे ज्योतिर्लिंग का नाम ओंकारेश्वर है। इसके विषय मे एक पौराणिक कथा है।
एक समय देवर्षि नारद घूमते-घूमते विंध्य जा पहुंचे जहां विंध्य ने उनका बड़ा सत्कार किया। तरह-तरह के साधनों से सत्कार करने के बाद विंध्य ने गर्व से देवर्षि से कहा कि उनके यहां किसी चीज की कमी नही है। उनके पास सब कुछ है।
विंध्य की अभिमान भरी बातें सुनकर देवर्षि लम्बी सांस खींची जैसे किसी बात की कमी देख ली। विंध्य ने उनको देखकर उनसे प्रश्न किया कि ऐसा क्या है जिसे ना पाकर देवर्षि असंतुष्ट हुए। नारद ने उत्तर दिया कि भैया तुम्हारे यहां सब कुछ है किंतु मेरु पर्वत तुमसे ऊंचा है जिसके शिखरों का विभाग देवलोक तक है।
इतना कहकर देवर्षि उसी क्षण वहां से चले गए किंतु विंध्य चिंता मे पड़े रह गए। जब उन्हे और कोई राह ना दिखी तो उन्होने भगवान शिव की तपस्या करने का सोचा और ओंकार नामक स्थान पर जाकर उसने एक पार्थिव शिवलिंग की स्थापना की और छः महीने तक घोर तपस्या करता रहा जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे दर्शन दिए।
भगवान शिव ने अपने दिव्य स्वरूप मे दर्शन देकर कहा कि हे विंध्य, पर्वतराज! मांगो जो चाहते हो।
विंध्य ने हाथ जोड़कर कहा प्रभू मुझे ऐसी अभीष्ट बुद्धि प्रदान करें जिससे मै अपने सभी कार्य कर सकूं।
भगवान शिव ने उसे तथास्तु कहा और प्रसन्न किया। उसी समय वहां कई देवता और ऋषि आएं और वे हाथ जोड़कर कहने लगे कि हे नाथ आप कृपा करके यहां स्थाई रूप से विद्यमान हो जाएं।
इस बात पर सहमत होकर शिवजी वहां रहना स्वीकार किया। वह जो एक पार्थिव ओंकारलिंग था वह दो भागों मे विभक्त हो गया। प्रणव मे जो शिव थे वे ओंकार नाम से प्रसिद्ध हुए और पार्थिवमूर्ति मे जो शिव थे वे परमेश्वर(ममलेश्वर) नाम से प्रसिद्ध हुए।
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