असत्य का दिया। कविता। अभिषेक सिंह। हर्ष वर्धन सिंह। रोमांच। Asatya ka diya | poem | Abhishek Singh | Harsh vardhan Singh | Theromanch
"असत्य का दिया"
सिमट रहा जो शून्य में वो सत्य खण्ड खण्ड है,
असत्य का दिया यहाँ तो प्रज्वलित प्रचण्ड है,
तिलमिला रहा है सत्य घुट घुट प्रमाण में,
लग गए लोग सारे छल कपट निर्माण में,
मृषा मस्तक पे अलंकृत सत्यता को दण्ड है,
असत्य का दिया यहाँ तो प्रज्वलित प्रचण्ड है।
पसर रही है पशुता मनुष्य आचरण में भी,
सिमट रही मनुष्यता मनुष्य के शरण में ही,
व्यथित स्थिति को निरूपित दूषित सा चित्त है,
षड्यंत में लगे हैं सब दोगला चरित्र है।
कलुष कामित अतः करण फिर भी घमण्ड है,
असत्य का दिया यहाँ तो प्रज्वलित प्रचण्ड है।
इक अदृश्य सी सभी के हस्त में कटार है,
पलक झपकते ही ये हृदय के आर पार है,
विष धरे हृदय में पर मुख में भरे फूल हैं,
पुष्प सदृश दिख रहे मगर असल में शूल हैं,
विकट उदंडता यहाँ निर्लज्यता अखण्ड है,
असत्य का दिया यहाँ तो प्रज्वलित प्रचण्ड है।
जो लूटतें है अस्मिता वही तो पहरेदार हैं,
छल रहे जो सृष्टि को वो बन गए सरदार हैं,
वासना की नीचता के सज गए बाज़ार हैं,
साधुता के ओट में व्यभचार के व्यापार हैं,
प्रकाण्डता दिखा के लोग कर रहे पाखण्ड है,
असत्य का दिया यहाँ तो प्रज्वलित प्रचण्ड है।
अभिषेक सिंह।
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