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श्री कृष्ण का जीवन-श्रीकृष्ण लीला (आर्यावर्त मे धर्म स्थापना-महाभारत) | रोमांच । Shree Krishna life | The Romanch |

जन्माष्टमी 2020 पर श्रीकृष्ण के जीवन पर एक लेख 

आने वाले मंगलवार-बुधवार को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। जन्माष्टमी यानी भगवान श्री कृष्ण का जन्म दिवस। श्रीकृष्ण जो संसार के सबसे अधिक पूर्ण पुरुष हैं जिनके चरित्र की महत्ता व अलौकिकता का वर्णन अनेकों महापुरुषों की वाणी से हो चुका है, उन पर मै हर्ष वर्धन सिंह आज अपने ब्लॉग रोमांच की दुनिया मे एक दृष्टि डालता हूंं।

श्रीकृष्ण की अद्भुत लीला, श्रीकृष्ण की कहानी, श्रीकृष्ण जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य, महाभारत मे उनका योगदान व सामान्य बालक से भगवान की कहानी आज हम पढ़ते हैं।

श्रीकृष्ण का जीवन



द्वापर की समाप्ति का वह समय चल रहा था जब सम्राट भरत द्वारा विजित भारतवर्ष हस्तिनापुर की एक पताका के नीचे चल रहा था किंतु भरत के बाद के राजाओं की उदार नीति व निर्बल सामर्थ्य के कारण यह महान भूभाग अनेकों छोटे-छोटे राज्यों मे विभक्त हो गया था। यद्यपि आर्यावर्त के लगभग सभी राज्य अब भी हस्तिनापुर के नियंत्रण मे थे किंतु उसके राजाओं मे स्वतंत्र शासन की इच्छा जन्म ले रही थी।
आर्यावर्त के ये छोटे-छोटे राज्य अपनी राज्यविस्तार की मंशा से एक दूसरे पर आक्रमण किया करते थे जिसमें कष्ट होता था प्रजा को। नित्य नए युद्धों से भारतवर्ष कमजोर हो रहा था। युद्ध के परिणामों से ना केवल सैनिकों की हत्याएं होती थी बल्कि जीतने वाले सैनिक हारे हुए राज्य की सम्पत्ति के साथ उनकी स्त्रियों-बालकों का शोषण करते थे। राज्यों की भौगोलिक सीमा के साथ लोगों के आर्थिक जीवन का भी बुरा हाल था। 
यूं तो हस्तिनापुर शक्तिशाली था किंतु पास ही मथुरा के निरंकुश शासक कंस के अत्याचारों पर उसने चुप्पी साध रखी थी।

आर्यावर्त की इस राजनीतिक व आर्थिक अस्थिरता के मध्य मथुरा के विशिष्ट कारागार मे जन्मा एक बालक जिसकी नियति उसे मृत्यु के गर्भ से गोकुल छोड़ आई।
वसुदेव व देवकी के पुत्र कृष्ण ने गोकुल मे नंद और यशोदा के घर मे पलकर सामान्य ग्वालों की समस्या देखी। वे ग्वाले जो कुशासन का विरोध नहीं कर सकते थे। उनके मन मे भय है ऐसा कृष्ण ने बिल्कुल पास से देखा और तब कृष्ण का एक लक्ष्य उस गांव को कुशासन से बचाना हो गया।

गोकुल छोड़ा तो वृंदावन पहुंचे किंतु इस प्रस्थान से भी काम न बना तो स्वयं मथुरा गए और सोलह वर्ष की अवस्था मे अपने जीवन का लक्ष्य पूर्ण किया, कंस का वध किया।

कंस का वध होने से उनके जीवन का एक लक्ष्य पूर्ण हुआ किंतु वे वहीं नहीं रुके। उन्होने अपना लक्ष्य परिवर्तित किया, उसे बड़ा किया। जो कार्य कंस मथुरा मे कर रहा था वही आर्यावर्त के अनेकों राजा अपने-अपने राज्य मे कर रहे थे किंतु अन्य राज्यों मे और कृष्ण नही थे। कृष्ण एक ही थे और उन्हे ही आगे बढ़कर सभी का हाथ थामना था।

बाल्यकाल का जो कृष्ण गोपियों के साथ, ग्वालोंं के साथ लीलाएं करता था वही सोलह वर्ष का कृष्ण आर्यावर्त की अनियंत्रित, हिंसक व अंधी राजनीति से वहां के लोगों की रक्षा के बारे मे सोच रहा था। बालक अवस्था मे राधा से किया गया अलौकिक प्रेम कर्तव्य की वेदी पर चढ़ गया और गोकुल का वह ग्वाला महर्षि संदीपनि से शिक्षा प्राप्त करने चला गया।

गुरुकुल से लौट कर मथुरा आने पर कृष्ण को उस समस्या से गुजरना पड़ा जो उनके कारण ही जन्म ले चुकी थी। मथुरा के पूर्व सहयोगी मगध का राजा जरासंध कंस की मृत्यु के प्रतिशोध के लिए मथुरा पर चढ़ाई करने जा रहा था कृष्ण के लिए जरासंध का वध करना कोई बड़ी बात न थी किंतु मगध पर अभी अधिपत्य करना आर्यावर्त की समस्त राजनीति मे उथल पुथल कर देता। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि हस्तिनापुर की मगध से पहले से प्रतिद्वंदिता चल रही थी। ऐसे समय मे कृष्ण ने मथुरा छोड़ देना उचित समझा और पश्चिम मे समुद्र के किनारे द्वारिका नगरी की स्थापना की। 

पूर्णयुवक हो चुके बाहुबली कृष्ण ने स्वयं को कूटनीतिज्ञ कृष्ण मे परिवर्तित किया और हस्तिनापुर की खोई शक्ति को पुनः संचित करके सम्पूर्ण आर्यावर्त को एक छत्र मे लाने का महायज्ञ प्रारम्भ किया। उस समय हस्तिनापुर के राजपरिवार मे आपसी कलह चल रही थी। तत्कालिक राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन को शासन पर देखना चाहते थे जबकि उनके स्वर्गीय भाई पांडु के बड़े पुत्र युधिष्ठिर स्वयं को सम्राट बनाना चाहते थे। कुशल पारखी कृष्ण ने शीघ्र ही अपना निर्णय मन ही मन बना लिया और स्वयं युधिष्ठिर के पक्ष को मजबूत करने की दिशा मे चल पड़े। 

अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृष्ण ने अपने व्यक्तिगत सुखों को भी उसके लिए समर्पित कर दिया। विदर्भ से रुक्मिणी को भगा कर लाए तो मानवता,प्रेम और धर्म के साथ-साथ कूटनीति भी शामिल थी फिर सत्यभामा, जामवंती और अन्य अनेकों विवाह करके उन्होने बहुत से राज्य, जाति तथा सामान्य जन से भी सम्बंध स्थापित किया।

इधर युधिष्ठिर का इंद्रप्रस्थ का राज्य प्राप्त होने के बाद सफलतापूर्वक राजसूय यज्ञ करना श्रीकृष्ण के सहयोग से ही पूर्ण हुआ था। राजसूय होने से एक बार मे आर्यावर्त के सौ राज्य इंद्रप्रस्थ के ध्वज के नीचे आ गए जिससे श्रीकृष्ण का उद्देश्य पूर्ण हुआ किंतु धूत(जुआ) सभा मे युधिष्ठिर के सर्वस्व हार जाने के बाद एक बार पुनः वे सभी राज्य अनियंत्रित हो गए और फिर वह हुआ जिसे कृष्ण कभी भी करना नहीं चाहते थे।

अपने पूरे जीवन तक जिस अव्यवस्था व अस्थिरता को कृष्ण शांति से संतुलित करना चाहते थे वह अब अपने सबसे भयानक छोर पर आकर खड़ी हो गई थी और अब इस कार्य के लिए अनिवार्य था एक महायुद्ध।

हस्तिनापुर के राजपरिवार की कलह ने सम्पूर्ण आर्यावर्त को दो गुटों मे बांट दिया और इस बंटवारे मे प्रमुख भूमिका निभाने वाले थे श्रीकृष्ण।

अट्ठारह दिन तक चले महभारत के नाम से प्रसिद्ध उस महायुद्ध मे आर्यावर्त के समस्त राजाओं ने भाग लिया और सैनिकों की एक पूरी पीढ़ी का अंत हो गया। सभी राजाओं का अंत हो गया और आर्यावर्त एक बार पुनः भारतवर्ष के रूप मे एक छत्र के नीचे आ गया, धर्म की स्थापना हुई।

श्रीकृष्ण चाहते तो वे स्वयं ही सम्राट बन सकते थे किंतु उन्होने युधिष्ठिर को सम्राट बनाया और स्वयं वापस द्वारिका लौट गए। महायुद्ध के छत्तीस वर्ष बाद जब उनकी स्वयं की द्वारिका नगरी मदिरा और अधर्म से त्राहि-त्राहि करने लगी तो उन्होने उसका भी नाश होने दिया और स्वयं एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे जहां एक बहेलिए के तीर मारने की वजह से उनकी मृत्यु हो गयी।
संसार के सबसे अधिक शक्तिशाली पुरुष ने एक बहेलिए के पैर मे तीर मारे जाने का बहाना लेकर अपने प्राण त्याग दिया।


वे मानवता का, जीवन का, व्यक्तित्व का सर्वोच्च उदाहरण हैं। उनका त्याग अतुलनीय है किंतु उन्होने जीवन का हर सुख भोगा। उनका शौर्य विशाल है किंतु वे सदैव शांत बनकर रहे। उनकी शक्ति अविजित है किंतु स्वयं सिंहासन का मोह नहीं रखते। उनकी कूटनीति अकाट्य है किंतु सरलता सदैव भाव से परिलक्षित होती है।स्वयं के प्रेम का बलिदान किया किंतु सबके प्रेमी हैं। जननी से जन्म होते ही दूर हो गए किंतु दो-दो माताओं का प्यार मिला। शक्ति, सामार्थ्य, बल, विक्रम आदि के स्वामी हैं किंतु प्रेम, दया, करुणा व उदारता की शिक्षा देते हैं।
ऐसा कुछ नहीं जो उन्होने नही खोया किंतु ऐसा कुछ बचा नही जिसे उन्होने प्राप्त नही किया। सामान्य मनुष्य के रूप मे जन्म लेकर, सामान्य जीवन जीकर मनुष्य से ईश्वर तक की यात्रा करने वाले हैं श्रीकृष्ण।
सबकी देह पर शासन कर सकने वाले ने सबके हृदय पर शासन करना स्वीकार किया, ऐसे हैं हमारे श्रीकृष्ण।
जय श्री कृष्ण

हर्ष वर्धन सिंह


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