कर्म करना श्रेष्ठ है अथवा कर्म ना करना (भगवद्गीता) | रोमांच । karmyog in bhagwadgeeta । The Romanch |
कर्म करना श्रेष्ठ है अथवा कर्म ना करना (भगवद्गीता)
जब भी संसार मे कोई हादसा होता है, हम चिंतित होते हैं, हम सोचते हैं कि क्या सही है और क्या नहीं, क्या करना चाहिए और क्या नहीं, अलग अलग चिंताएं, स्वयं की चिंता, परिवार की चिंता, समाज की चिंता और फिर पूरे संसार की चिंता होती है। जब मन बहुत अधिक व्यथित हो जाता है और कुछ समझ नही आता तो व्यक्ति शांति की खोज करना चाहता है।
जितने भी महापुरुष हुए चाहे वो गौतम बुद्ध हों, महावीर स्वामी हों, स्वामी विवेकानंद हों अथवा कोई अन्य महाप्राणी, जब भी उनका मन बहुत अधिक व्यथित हुआ तो वे घर से निकले, साधना मे रहे, तप किया, ध्यान किया और तब उन्हे वास्तविक सुख प्राप्त हुआ। एक बार शांति का मार्ग प्राप्त करने के पश्चात वे संसार मे रहते हुए भी संसार के दुखों मे नहीं फंंसे। उन्होने लोगों के दुख को देखा, समझा और समझाया भी किंतु स्वयं नही दुखी हुए।
किंतु क्या हर व्यक्ति घर छोड़कर जा सकता है? क्या आप जा सकते हैं? उत्तर है कि सभी नहीं। तो क्या जो नही जा सकता वह सुखी नही हो सकता? उत्तर है कि क्यों नही हो सकता, उसे बस कुछ समय देने की जरूरत है। थोड़ा समझने की जरूरत है और फिर वह जरूर अपना मस्तिष्क संसार मे लगाकर भी दुखी नही होगा।
तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति को यह लगने लगता है कि क्या रखा है संसार में, जब वह सुख का मार्ग सिर्फ सन्यास में ही खोजने लगता है तब उसे आवश्यकता होती है इस ज्ञान की जो भगवान ने गीता मे दिया है।
भगवद्गीता के अध्याय 3 में जहां भगवान कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग सिखा रहें हैं वहां अर्जुन के मन मे एक प्रश्न उठता है। इससे पहले अध्याय दो मे प्रभू ने पहले कर्म त्याग कर मोक्ष के विषय मे बताया और फिर भक्तिभाव से कर्म करने पर भी जोर दिया। इस विरोधाभास के कारण अर्जुन ने भगवान से पूछा-
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएंगे कि इन दोनों मे से कौन अधिक लाभप्रद है?
आप सोचिए कि कौन ज्यादा सही है? कर्म करना अथवा ना करना? मुक्ति के लिए कर्म से मुक्त रहना कहा गया है किंतु भगवान तो कर्म करने को भी कहते हैं। अध्याय 2 के श्लोक 47 मे वे स्वयं कहते हैं कि
कर्म करने मेंं ही तुम्हारा अधिकार है फल के तुम अधिकारी नहीं। तुम न तो अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो और ना कभी कर्म ना करने मे आसक्त होओ
भगवान ने अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर दिया कि हे पृथापुत्र-
👍👌
ReplyDeleteBahut ache se banaya hai aapne
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