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षट विकार | जीवन के बाधक । रोमांच । shat vikar | philosophy | the romanch |

षट विकार

theromanch



प्रगति मे बाधा


मनुष्य का जन्म प्रगति के लिए हुआ है। यह प्रगति आध्यात्मिक, आत्मिक, मानवीय, व्यवहारिक किसी भी प्रकार की हो सकती है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है प्रगति करना। इस प्रगति के लिए संघर्ष करने पड़ते हैं, उनसे उबरना पड़ता है और आगे बढ़ना होता है किंतु कभी-कभी हमारी जिजीविषा या हमारी असफलता हमे एक ऐसे बंधन मे जकड़ लेती है कि हम उससे निकल नहीं पाते और हमारी प्रगति बाधित हो जाती है। महापुरुषों ने ऐसे छः दोष बताए हैं जो निरंंतर हमें रोकते हैं।

षट विकार

कर्म करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। चलते रहना उसकी स्वभाविक वृत्ति है किंतु किसी एक हीनता के कारण उसका रुकना उचित नहीं है।
इन बाधकों को उखाड़ फेकने के लिए पहले इनको जान लेना आवश्यक है।
ये कुछ इस प्रकार हैं-

1. काम- मनुष्य जीवन मे इच्छाओं का होना आवश्यक है किंतु उनका नियंत्रित होना भी आवश्यक है। प्रत्येक धर्म-संस्कृति मे कामी पुरुष को नीच बताया गया है क्योंकि कामी पुरुष ना केवल शारीरिक रूप से दुर्बल होता है बल्कि उसकी नैतिकता का भी पतन हो जाता है। उसे अपनी इच्छाओं के अतिरिक्त किसी उचित-अनुचित का बोध नहीं रहता है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो कामी के विषय मे यहां तक बताया है-

भ्राता पिता पुत्र उरगाही। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी।जिमि रबिमन द्रव रबिहि बिलोकी॥

वह कोई स्त्री वो या पुरुष हो, काम सभी का नाश करता है। संसार के सतत संचालन के लिए जिस जनन क्रिया की आवश्यकता है उसपर प्रेम के स्थान पर काम का स्वामित्व होना मानव की प्रगति मे सबसे बड़ी बाधा है।

2.क्रोध- क्रोध का होना विनाश के निमंत्रण का पहला प्रयास है। मनुष्य की सभी असफलताओं के बाद आत्मसंतुष्टि का रूप लेकर यह जन्म लेता है।
ऐसा नहीं है कि क्रोध न्यायोचित नही होता। जीवन की अनेक ऐसी परिस्थितियां आती हैं जब क्रोध का आना स्वभाविक होता है किंतु क्रोध का परिमाण इतना अधिक नहीं बढ़ना चाहिए कि आत्मनियंत्रण खो जाए और मनुष्य विनाश कर बैठे।
पौराणिक कथाओं मे देखा गया है कि बड़े-बड़े ऋषि-तपस्वी वर्षों तक संयम व तप के द्वारा जिस ऊर्जा का संंचय करते हैं उसे क्रोध की अग्नि मे एक क्षण मे भस्म कर देते हैं। यही क्रोध का सबसे विनाशकारी रूप है। आज भी अनेकों सम्बंधों के टूटने का चाहे वह व्यक्तिगत हो अथवा सामाजिक अथवा राष्ट्रीय किंतु उसके टूटने का आरम्भ क्रोध से ही होता है। इस प्रकार क्रोध व्यक्ति का एक विकार बनकर रह जाता है।

3.लोभ- मानव का तीसरा दोष है लोभ। संसार मे पैर पड़ते ही वह किसी ना किसी वस्तु को पाने का प्रयत्न करता है चाहे वह माता का दूध हो या पिता का वात्सल्य, किंतु उस समय उसके लिए एक सीमा होती है जो भविष्य मे समाप्त हो जाती है। वह धन-ऐश्वर्य-प्रतिष्ठा की अनंत कामना करने लगता है। यह कामना एक परिसीमा मे रहे, उस पर नैतिकता का नियंत्रण रहे तब तक ठीक है क्योंकि वह उस समय किसी और को प्रताड़ित नही करेगा, किंतु बिना किसी भय या रोक के उसके हाथों ना जाने कितने जीवों की आत्मा को कष्ट होगा यह सोचना भी कठिन है। 
जब जब मनुष्य अपने उत्थान के लिए अन्य के पतन की कामना करता है उसकी आत्मा दुर्बल होने लगती है। वह भौतिक संसाधन तो जमा कर लेता है किंतु उसकी आध्यात्मिक स्थिति दयनीय होने लगती है। एक समय अवश्य ऐसा आता है जब उसे अपनी गलतियों का भान होता है किंतु तब तक वह बहुतों के साथ अन्याय कर चुका होता है, यही लोभ का करुण अंत है।

4.मोह- मोह का प्रथम जन्म तो अज्ञानता से होता है। एक ऐसा सम्बंध जहां खो देने का भय इतना अधिक कि वास्तविकता का ज्ञान भी नहीं है। कई बार लोग मोह को प्रेम का ही एक रूप बता देते हैं किंतु प्रेम और मोह मे अधिक अंतर है।
जहां एक ओर मोह स्वयं कुछ प्राप्त करना चाहता है वहीं प्रेम निःस्वार्थ होता है। मोह स्वयं के महत्व की आकांक्षा करता है किंतु प्रेम स्वयं को कष्ट देकर भी अपने चाहने वालों को प्रसन्न देखना चाहता है। मोह सभी को स्वयं से बांधे रखना चाहता है किंतु प्रेम सभी की उन्नति देखना चाहता है। मोह को प्रेम से नही तोला जा सकता।
मोह करने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से निर्बल होता जाता है, उसकी भावनाएं उसकी शक्ति ना बनकर उसकी वेदना प्रतिबिम्बित करती हैं। वह किसी को छोड़ना नही चाहता, किसी से अलग होना उसे स्वीकार नहीं, उसे बस रोके रखना है और यही इसमें बुराई है। 
स्वच्छंद होना मनुष्य का अधिकार है। स्वयं का विकास करना उसका कर्तव्य है। प्रेम करना ईश्वर का एक उपहार है जिसे जीवन भर करते रहना चाहिए।

5.ईर्ष्या- पांचवा विकार है ईर्ष्या। अतीत से लेकर वर्तमान तक हर युग मे, हर काल मे ना केवल कुछ व्यक्तियों को वरन संसार मे एक बड़े पैमाने पर बसने वाले मनुष्यों मे यह विकार है। असफल को सफल से, दुखी को सुखी से, निर्बल को बलवान से, गरीब को अमीर से, यह दोष असीमित रूप से व्याप्त है। जहां एक ओर व्यक्ति स्वयं का उत्थान करना चाहता है वहीं वह किसी अन्य का उत्थान ना होते देखना चाहता है। कुछ अगर भलमानुस हुए तो वे उत्थान तो चाहते हैं किंतु स्वयं से ऊपर नहीं और यही ईर्ष्या का दोष है।
 

6.अहंकार- सभी विकार हों तब भी यदि अहंकार उसके अंदर ना हो तो मनुष्य सदाचारी बन सकता है किंतु यदि अकेला अहंंकार किसी व्यक्ति के अंदर आ गया तो अन्य सभी दोषों की आवश्यकता ही नही है। यह अकेला मनुष्य का विनाश कर देगा। अहंकारी मनुष्य मे ना लज्जा होती है, ना उचित-अनुचित का अनुभव करने की शक्ति और ना विनम्रता अथवा विवेक का व्यवहार। उसे प्रत्येक पथ पर, प्रत्येक क्षण स्वयं को सिद्ध करना होता है। स्वयं का महत्व व प्रभुत्व ही उसे सर्वाधिक प्यारा होता है और इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है।

वास्तव मे इन दुर्गुणों की परिभाषा व दुष्परिणाम यहीं समाप्त नहीं हो सकते हैं। प्रत्येक युग मे, आदि से वर्तमान तक ये व्याप्त रहे हैं। वो रावण क्या, कंस क्या, दुर्योधन क्या, हिरण्यकश्यप क्या जितने भी इन दुर्गुणों से ग्रसित महाशक्तिशाली पुरुष या राक्षस थे उन सभी का दुर्दांत हुआ और उस समय के सदाचारियों ने, सत्पुरुषों ने विजय प्राप्त की।
वास्तव मे आत्मकल्याण के लिए, वास्तविक प्रगति के लिए इन गुणों का दूर होना आवश्यक है और इन्हें दूर करने का उपाय है आत्मदर्शन।
अब आत्मदर्शन की भी बहुत सी परिभाषाएं हैं किंतु वास्तव मे उसे प्राप्त करने का सबसे सुगम मार्ग है ईश्वर से निश्चल प्रेम। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहिं भजउ भजहिं जेहिं संत॥

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