आज का विचार-
अनंत भोगों का उपभोग करके भी अज्ञानी मन की तृष्णा वैसे ही असंतुष्ट होती है जैसे मरुस्थल की मरुभूमि जल की बूंदो से।
इसीलिए तो राजा ययाति ने कहा था-
भोगा
न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो
न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो
न यातो वयमेव याताः
तृष्णा
न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ, बल्कि हम स्वयं समाप्त हुए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं।
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