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पथिक hindi kahani (love story) Romantic Love Story, Sad Story | रोमांच । The Romanch |

नमस्कार दोस्तों मेरा नाम है हर्ष वर्धन सिंह और आप आए हैं रोमांच मे।

पथिक

Pathik is a short story, a romantic love story from Romanch. Hindi love story, Romance, Love, Pain, Mistakes and tear in short love story, in hindi kahani.

(प्रेम कहानी)

image: https://depositphotos.com


"तारा!"
"हूं"
"क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो?"
"अरे मेरे प्यारे पंछी" तारा ने अपने अंकक्षेत्र मे विश्राम करते प्रेम के गेहुएं कपोलों पर चपत लगाते हुए कहा,"तारा को प्रेम से अत्यधिक प्रेम है।"
प्रेम उस बाग के ईशान छोर पर अपनी प्रेयसी की गोद मे अपने नयनपटलों को बंद किए मधुरस्वप्न मे आनंद विचरण कर रहा था।


एक माह बीत गया था। तारा से सम्पर्क करने के सारे प्रयत्नों के बाद भी प्रेम असफल रहा था। फिर एक चिट्ठी आई।
प्रेम ने उसे खोलकर पढ़ना प्रारम्भ किया।
"प्रिय प्रेम!
मैने सम्पूर्ण जीवन तुम्हारे साथ बिताने का वचन दिया था किंतु कई बार वचनों के भी अनेक समीकरण बनते हैं। मेरे पिता का दिया गया एक वचन आज मुझे अपने वचन की बलि देने को विवश कर रहा है। तुम्हारे बिना मेरा जीना तो होगा पर जीवन नहीं किंतु मुझे अपने पिता के वचनों की रक्षा करनी ही होगी। मै तुमको छोड़कर एक पथिक के साथ यात्रा प्रारम्भ करने जा रही हूं। मुझे क्षमा करना।" 

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प्रेम ने चिट्ठी का जबाब दिया,
 "प्यारी तारा 
यद्यपि हमारा सम्बंध विवाह मे परिणत ना हो सका किंतु हमारे हृदय अवश्य एक दूसरे के लिए धड़के हैं और मेरी जो श्रद्धा इस प्रेम सम्बंध के प्रति रही है वह भविष्य मे भी अक्षुण्ण रहेगी। तुम्हारा पथिक तुम्हे मुझसे अधिक प्रेम करे। तुम्हारा नवजीवन मंगलमय हो।" 

अषाढ़ की पहली चतुर्थी को ही देवराज इंद्र ने धरा के अन्नदाता के लिए वर्षा आरम्भ कर दी थी। ज्येष्ठ की तपती गरमी से व्याकुल वसुधा को शीतलता के कुछ क्षण प्राप्त हुए थे। बहुत से मतवाले पक्षी तोते, कोयल, बुलबुल आदि स्वच्छ आकाश मे स्वच्छंद विचरण कर रहे थे। मोरों ने इस सुधावृष्टि के रसास्वादन के लिए अपने पंख फैला दिए थे। ऐसे सुंदर वातावरण मे रसालवृक्षों के पत्रों के मध्य से छनकर आता भगवान आदित्य का प्रकाश पुंज जब भूमि पर अपनी अनुपम कलाकृति का निर्माण करता है तो दर्शक के लिए दृश्य मनमोहक हो जाता है। किंतु ऐसी मनोहारी संदृश्य मे भी सुहानी का अस्थिर मन किसी अनिष्ट परिस्थिति की आशा से विचलित है। उसके सांवले गोल मुख की रौनक आज बुझी-बुझी सी है। अक्सर खिलखिलाते रहते उसके अधरों की लालिमा आज सूखी हूई सी थी और सजल नेत्रों से निकली अश्रुधारा ने अपने मार्ग का एक चिन्ह बना दिया था। उस आम्र-वाटिका के मध्य मे बैठी वह उन्नीस बरस की नवयौवना ना जाने किस विचारग्रंथ का निर्माण कर रही थी कि प्रेम वहां आ गया।
"सुहानी! तुम यहां हो? मै कब से तुमको ढूंढ़ रहा था।" उसने आते ही कहा।
प्रेम की ध्वनि सुनते ही सुहानी ने अपने कपोलों से अश्रुओं के अंश को बड़ी शीघ्रता से पोंछ डाला और अपनी आवाज को साफ करके सामान्य रहके कहा,"भैया! आप कब आए?"
"कितनी देर हो गई मुझे आए हुए और तुम हो कि इस आम के बगीचे मे बैठी हो। चलो अब घर चलें।"
दोनों भाई-बहन सामने स्थित भवन मे प्रवेश कर गए।  

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अगले दिन प्रेम के शहर जाते ही फिर से सुहानी विचारों के सागर मे गई कि उसे चक्कर आया और गिर गई। प्रेम अभी रास्ते मे ही था कि नौकर का फोन गया। 
अस्पताल के बाहर प्रेम व्यथित सा टहल रहा था कि चिकित्सक बाहर आए। प्रेम ने हाल-चाल लेने के लिए उनसे पुछा तो चिकित्सक उसे अपने व्यक्तिगत कक्ष मे ले गया और बताया कि वह मां बनने वाली है।

दो दिन बीत गए थे। सुहानी घर आ गई थी और प्रेम भी शहर नही गया। दो दिन तक उसने बहुत विचार किया कि इस स्थिति से कैसा निबटा जाए और जब कुछ ना समझ आया तो सुहानी के पास जाकर उसने पूछना चाहा।
उसके पास जाकर उसने अत्यधिक प्रेम से सुहानी के बालों पर हाथ रखा तो वह जोर-जोर से रोती हुई प्रेम से लिपट गई। "भैया मुझे माफ कर दो। मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई। मुझे नही पता था कि वह मुझे धोखा देगा। वो मुझे छोड़ कर चला गया।"
सुहानी को समझाकर प्रेम उस पते पर गया जो सुहानी ने उसे दिया था किंतु घर मे ताला लगा था। आसपास से पता करने पर पता चला कि उसकी शादी है। शादी शब्द सुनते ही जैसे प्रेम के शरीर मे तरंग उठी हो। उसे किसी भी तरह इस शादी को रोकना होगा। कुछ ही देर मे वो शादी वाली जगह पहुंच गया।
"केसर! केसर!" प्रेम चिल्लाया। अभी कार्यक्रम प्रारम्भ नही हुआ था। प्रेम की कई आवाजों के बाद लोग वहां जमा हो गए और दूल्हे का सेहरा बांधे एक युवक सामने आ गया।
"कौन हो तुम?" एक सज्जन ने पूछा।
"मै कौन हूं ये इतना आवश्यक नही है" प्रेम ने केसर की ओर ही देखते हुए कहा। उसने उसकी ओर कदम बढ़ाया और हाथ जोड़कर बोला, "केसर ये ना करो।"
"क्या ना करूं भाई? कौन हो तुम?" केसर के अपेक्षाकृत प्रसन्न चेहरे पर खिन्नता थी।
"मै सुहानी का भाई हूं केसर। तुम उसके जीवन को बर्बाद ना करो" प्रेम की वाणी मे करुणा का संचार बढ़ गया था और उसके हाथ अभी भी जुड़े हुए थे।
सुहानी का नाम सुनते ही केसर की खिन्नता विकलता मे परिवर्तित हो गई। अपने लड़खड़ाते शब्दों को संभालकर उसने कहा, "कौन सुहानी? मै किसी सुहानी को नहीं जानता।" उसने अपने सिर को हिलाया और इधर-उधर भी देखने लगा। उसे किसी के सहारे की जरूरत थी किंतु सभी लोग शांत होकर इन दोनों को देख रहे थे।

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"ऐसा ना कहो केसर। वो तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली है"
लोगों मे फुसफुसाहट की ध्वनि होने लगी। केसर व्याकुलता की पराकाष्ठा पर था। स्वेद की बूंदे उसके भाल पर स्पष्ट थीं। प्रेम अब भी हाथ जोड़े उसके सामने खड़ा था।
"ये क्या अनाप-शनाप कह रहे हो तुम युवक?" प्रेम की तरफ एक अधेड़ ने आते हुए कहा। उसके बलिष्ठ शरीर और तेजस्वी मुखमंडल से ही वह प्रतिष्ठित लग रहा था।
"मै सत्य कह रहा महाशय।" प्रेम ने धीरज से उत्तर दिया, "मेरी बहन केसर से प्रेम करती है।"
वह व्यक्ति केसर की तरफ मुड़ गया "क्या ये सही कह रहा है?"
"नहीं पिताजी! ये झूठ बोल रहा है। मै किसी सुहानी को नही जानता।"
"केसर कृपा करो। ऐसा ना कहो। मेरी बहन का जीवन नष्ट हो जाएगा।"
सहसा केसर के मुख पर कठोरता का जन्म हुआ और वह अपने पिता की तरफ कुछ बल से बोला "अवश्य ही इस व्यक्ति को धन का लालच है तभी ये अपनी बहन के साथ मिलकर इस षड़यंत्र का जाल फेंक रहा है।"
"केसर!" प्रेम की आंखों मे अब तीव्रता का सूक्ष्म प्रकाश उत्पन्न हो रहा था। "मेरी बहन का तुमसे निश्छल प्रेम परम पवित्र है उसके विषय मे ऐसी हीन बातें ना करो।"
"निश्छल प्रेम!" केसर की वाणी व्यंगात्मक थी। "वह एक चरित्रहीन लड़की है जो ना जाने कहां-कहां का मुंह मारने के बाद ना जाने किसका बच्चा पेट मे लेकर मुझसे लिपटना चाहती है।"
"केसर!" प्रेम का क्रोध विद्युत धारा के समान उसकी नसों मे दौड़ गया। अंग-अंग की फड़कने लगा। मस्तिष्क का नियंत्रण शरीर से हट गया और पास मे पड़ी एक लोहे की छड़ उसने केसर के सिर पर दे मारी। वह दर्द से तड़पता नीचे गिरा कि एक और वार उसके सिर पर हुआ। आसपास हड़कंप मच गया। केसर के पिता दौड़कर केसर तक पहुंचे और उसे उठाने लगे। लोग प्रेम की तरफ दौड़े किंतु उसको छूने की हिम्मत किसी की नही हुई। वह अब भी रक्तरंजित छड़ हाथ मे लिए था। केसर के पिता व परिवार जन उसके मृतदेह पर दहाड़े मार-मार कर रो रहे थे। लड़की वाले भी इकट्ठे हो गए थे। इन सभी शोरों के बीच प्रेम को एक ही चीख सुनाई दी। दुल्हन की तरह सजी उस अभागिन लड़की को देखकर हतप्रभ प्रेम के कंठ से एक ही फुसफुसाहट की ध्वनि निकली,"तारा!"

रक्ताभिषेकित हुए इस विवाह मंडप से उसके पथिक ने नीले गगन की यात्रा अकेले प्रारम्भ कर दी थी।
 


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