Philosophy from Romanch. Thoughts of true life, Struggle of harsh life and technique to find victory.
मनुष्य की अनियंत्रित इच्छाएं व स्थिरता
प्रारम्भ से ही मनुष्य मे एक गुण अन्य जीवों से भिन्न रहा है और वह है संचय का। अन्य सभी जीव वर्तमान के लिए जीते हैं किंतु मनुष्य भविष्य की योजनाओं को बनाकर चलता है। साधारणतयः यह एक लाभकारी गुण है किंतु इसके दुष्परिणाम भी हैं।
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नमस्कार दोस्तों मेरा नाम है हर्ष वर्धन सिंह और आप आए हैं रोमांच मे।
मानवीय स्वभाव
मानव का स्वभाव है बेहतर भविष्य के लिए कार्य करना। जीवन के उस हिस्से से जहां उसमें समझने की शक्ति विकसित होती है, वह आने वाले समय के लिए तैयारी प्रारम्भ कर देता है। यही कारण है कि मनुष्य ने अन्य किसी भी जीव की अपेक्षाकृत सर्वाधिक प्रगति की है।
उसकी प्रत्येक घटना के कारण को जानने की अभिलाषा व अधिक प्राप्त करने की आकांक्षा ने उसके लिए प्रगति के अनेक मार्ग खोले जहां उसने अनेकों सुख के साधनों का लाभ उठाया तथा समग्र विश्व को आनंद के प्रखर बिंदु तक ले गया किंतु उसकी अक्षुण्ण जिजीविषा ने उसके अंतर्मन को अत्यधिक चोट पहुंचाई।
असंतुष्ट इच्छाएं
मनुष्य के दुःखों का प्रथम कारण है उसकी इच्छा। समस्त इच्छाएं पूरी होना असम्भव है क्योंकि एक इच्छा पूरी होने के पश्चात ही दूसरी का उद्भव होता है। एक मनुष्य की अधूरी इच्छा तथा उसका पूरा ना होना एक क्रम से उसके लिए हानिकारक बनता है जिसे भगवद्गीता मे भगवान ने स्पष्ट किया है।
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मनुष्य का क्रमागत पतन
भगवान कहते हैं कि इंद्रियो द्वारा नियंत्रित मनुष्य की आसक्ति उन इच्छाओं मे इतनी अधिक हो जाती है कि उसे काम की श्रेणी मे रख दिया जाता है। व्यक्ति के प्रयास करने के पश्चात भी काम के पूर्ण ना होने पर उसमें क्रोध का जन्म होता है। क्रोधी व्यक्ति को किसी भी वस्तु का भान नहीं होता उसमे विनाश की प्रकृति जन्म लेती है और क्रोध के शांत होने पर उसमें मोह जन्म ले लेता है। क्रोधी व्यक्ति मोह के मायापाश मे फंंस जाता है और अधिक मोह से उसकी स्मरणशक्ति का नाश होता है, बुद्धि नष्ट होती है और व्यक्ति का पतन होता है।
दिशाहीनता
जीवन मे कर्म की प्रधानता अनिवार्य है। बिना संघर्ष के जीवन का होना असम्भव है किंतु कर्म की दिशा का सुनिश्चित होना भी आवश्यक है। मनुष्य निरंतर आधुनिक होने का प्रयास कर रहा है किंतु वह केवल भौतिक संसाधनों मे नवीनता की खोज कर रहा है। वह अपने अंतर्मन के विकास के लिए आवश्यक प्रयासों की अनदेखी करता है जिसके कारण वह जटिल समस्याओं से घिर जाता है और उन्ही समस्याओं से विकल होकर भटकता रहता है उसे आवश्यक दिशा प्राप्त नही होती।
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अस्थिरता से स्थिरता की यात्रा(आत्म दर्शन)
मानव की आत्मिक उन्नति का रास्ता आत्म दर्शन है। वैराग्यता के तीन प्रश्न 1. तुम कौन थे, 2.तुम कौन हो, 3.तुम कौन होगे, आत्मसंयम के लिए मुख्य हैं। तुम संसार को कैसे देखना चाहते हो इसके स्थान पर स्वयं को संसार के समक्ष कैसा स्थापित करना है यह महत्वपूर्ण होना चाहिए। वास्तविक उन्नति को भौतिक संसार मे नहीं वरन अपने मानस पटल पर करने का प्रयत्न करना चाहिए।
आत्म-ज्ञान कर्मों से अलग होने की शिक्षा कदापि नहीं देता बल्कि आत्मज्ञानी व्यक्ति के कार्य अधिक विवेकपूर्ण व तर्कसंगत सिद्ध होते हैं। व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास के लिए जिसमें उसका शारीरिक व आत्मिक दोनों विकास शामिल हैं, भगवान ने स्पष्ट कहा है-
रागद्वेषविमुक्तैस्तु विषयानिंद्रियैश्चर्ंं।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
(अध्याय 2, श्लोक 64)
अर्थात- समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इंद्रियों को संंयम द्वारा वश मे करने में समर्थ व्यक्ति भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।
भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त होने के पश्चात व्यक्ति शाश्वत आनंद को प्राप्त होता है और यही जीवन का लक्ष्य है। निस्संदेह हम सभी जीवन के उस असीम आनंद को अवश्य ग्रहण करेंगे।
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