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क्या हैं भगवान? (भगवद्गीता) what is God? (bhagwadgeeta)

 क्या हैं भगवान? (भगवद्गीता) what  is God? (Bhagwadgeeta)

भगवान क्या हैं? संसार मे व्याप्त हर धर्म, हर सम्प्रदाय किसी ना किसी पराभौतिक शक्ति को मानता है। कोई स्वयं की आत्मा को सर्वोच्च स्थान देता है तो कोई ऊपर आसमान मे बैठे किसी परमात्मा को। कोई जीव को ही सब कुछ कहता तो कोई प्रकृति को सब कुछ कहता है।

सनातन संस्कृति की खास बात यह है कि यह संसार मे उपस्थित प्रत्येक वस्तु को ईश्वर की एक रचना मानकर संतुष्ट नही होती बल्कि यह प्रत्येक वस्तु में ईश्वर का वास खोजती है और इसकी यही सोच इसे ईश्वर के लिए किसी स्थान पर जाने को प्रोत्साहित करना अनिवार्य नही समझती बल्कि प्रत्येक स्थान पर ईश्वर की उपस्थिति को सिखाकर व्यक्ति को ईश्वर के पास ले आती है।

सनातन मे सब कुछ है। ऐसा कुछ नहीं जो इसमें नही है। इसने हर एक परिभाषा दी है स्वयं भगवान की भी।

भगवद्गीता के सांंतवे अध्याय के चौथे श्लोक मे श्रीभगवान कहते हैं-

भूमिरापोSनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टया॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 4)

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार- ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्न प्रकृतियां हैं।

इस श्लोक के माध्यम से भगवान कहते हैं कि वे इन सभी से भिन्न हैं किंतु वे सब कुछ हैं जिसे उन्होने आगे और अधिक स्पष्ट किया है-

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 6)

सारे प्राणियों का उद्गम इन दोनों शक्तियों मे हैं। इन जगत् में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझे ही जानो।

इस श्लोक ने स्पष्ट किया कि भगवान भौतिक भी हैं और आध्यात्मिक भी। यानी जितने भी क्रियाकलाप हो रहें संसार मे सभी ईश्वर के निमित्त ही हैं। कुछ भी उनसे पार नहीं यद्यपि उन्होने इसे स्वयं से भिन्न रखा है।

आगे के कुछ श्लोकों मे वे कुछ तत्वों व पदार्थों का उदाहरण देकर स्वयं के विषय मे बताते हैं-

मत्तः परतरं नान्यत्किन्चिदस्त धनंंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 7)
हे धनंजय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गूंथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।

रसोSहमप्सु कौंतेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 8)

हे कुंतीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूं, सूर्य तथा चंद्रमा का प्रकाश हूं, वैदिक मंत्रों में ओंकार हूं, आकाश में ध्वनि हूं तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूं।

पुण्यो गंधः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 9)
मै पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूं। मै समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूं।

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 10)

हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मै ही समस्त जीवों का आदि बीज हूं, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूं।

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोSस्मि भरतर्षभ॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 11)
मै बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूं। हे भरतश्रेष्ठ! मैं वह काम हूं, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।

ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तांविद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥
                                  - (अध्याय 7, श्लोक 12)
तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या तमोगुण हों। एक प्रकार से मैं सब कुछ हूं, किंतु हूं स्वतंत्र। मै प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूं अपितु वे मेरे अधीन हैं।

इस प्रकार भगवान ने स्वयं के विषय मे बताया। वे सर्वत्र हैं किंतु स्वतंत्र हैं। वे सब कुछ हैं किंतु किसी के अधीन नहीं हैं। प्रत्येक वस्तु उनके अधीन है यही उनका सनातन आस्तित्व है जो अनादि से है और अनंत तक रहेगा।

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जय श्री कृष्ण। 


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