महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग
महाकालेश्वर महादेव की कथा
उज्जैन नगरी उस समय अवंति नाम से प्रसिद्ध थी। यहां वेदप्रिय नाम के एक सत्पुरुष ब्राह्मण रहते थे। वे बड़े धर्मपरायण एवं सत्यनिष्ठ थे, सदा शिवभक्ति मे लगे रहते थे। समय आने पर वे शिवलोक को प्राप्त हुए।
वेदप्रिय के चार पुत्र थे जो सत्कर्मों मे उन्हीं के समान थे। देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत एवं सुव्रत नाम के वे चार ब्राह्मण कुमार शिवभक्ति मे सदैव संंलग्न रहते थे। उनकी भक्ति व सत्यता की चर्चा उस समय चारों दिशाओं मे होने लगी। अवंति का नाम भक्ति के बारे मे विख्यात हो गया।
उस समय रत्नमाल पर्वत पर दूषण नाम के एक दुष्ट राक्षस ने ब्रह्मदेव की अराधना करके वरदान प्राप्त किया और धर्म, वेद और धर्मात्माओं पर चढ़ाई करने लगा। एक बड़ी सेना लेकर उसने अवंति पर भी चढ़ाई की।
एक तरफ धर्मनगरी अवंति मे शिवजी के चार महान भक्त और दूसरी तरफ दूषण की विकराल सेना। लोग डरने लगे, राज्य के अन्य ब्राह्मण भागने लगे तब उन चार वेदप्रिय पुत्रों ने सभी से बिना भयभीत हुए शिवजी की अराधना करने को कहा और स्वयं भी प्रार्थना मे लग गए।
दूषण अपनी सेना के साथ उसी स्थान पर पहुंच गया जहां चारों भक्त अन्य भक्तोंं के साथ प्रार्थना मे लगे हुए थे। सभी को प्रार्थना करते देख दूषण ने चीख कर आदेश दिया कि इन सभी को बांध लो।
जैसे ही दैत्य भक्तों को पकड़ने के लिए आगे बढ़े, उसी समय उस पार्थिव शिवलिंग के स्थान पर गड्ढा हो गया और उससे महादेव जी का महाकाल रूप बाहर आया और उसकी एक हुंकार से ही दूषण की सेना का नाश हो गया। दूषण को भी भगवान महाकाल ने समाप्त कर दिया और तब उन्होने उन चार ब्राह्मणकुमारों को सद्गति प्रदान की।
भगवान का वह महाकाल रूप उसी गड्ढे मे सदैव के लिए स्थापित हो गया जिसे महाकालेश्वर के नाम से जाना गया जिसे भगवान शिव के तीसरे ज्योतिर्लिंग के रूप मे जानते हैं।
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