घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग
घुश्मेश्वर शिवलिंग की कथा
दक्षिण मे देवगिरि पर्वत के निकट भरद्वाज वंश मे सुधर्मा नामक ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण रहते थे। वे अपनी पत्नी सुदेहा के साथ रहते थे। बाकी सभी सुख थे किंतु सुदेहा के कोई पुत्र नहीं था। जब बहुत समय तक सुदेहा को पुत्र प्राप्त नही हुआ तो उसने सुधर्मा से अपनी बहन घुश्मा से विवाह करने का आग्रह किया। प्रारम्भ मे तो सुधर्मा ने यह कहकर इंकार कर दिया कि दो बहनों का प्रेम बाद मे जलन मे बदल जाएगा किंतु सुदेहा के बार बार कहने पर वे विवाह के लिए तैयार हो गए।
घुश्मा भगवान शिव की अनन्य सेविका थी। विवाह के पश्चात उसने सुधर्मा और बड़ी बहन सुदेहा की खूब सेवा की, दासी की तरह रही। प्रतिदिन वह एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाती और उनकी पूजा करती। समय बीतता गया। घुश्मा को पुत्र हुआ और उसके बाद घुश्मा का मान बढ़ा। इसके साथ ही सुदेहा के मन मे डाह उत्पन्न हुआ।
बचपन बीतने पर पुत्र का विवाह हुआ और पुत्रवधू आई। वह अपनी दोनों सांसो को बराबर सम्मान देती थी किंतु सुदेहा के मन की जलन कम न हुई। एक रात को उसने सोते हुए पुत्र को छुरी से छोटे-छोटे टुकड़ों मे काट दिया और टुकड़ों को उसी तालाब मे फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रत्येक दिन शिवलिंग विसर्जित किया करती थी।
सुबह होने पर नई बहू ने पुत्र के पलंग को देखा तो उस पर खून के छींंटे और कुछ अंग पड़े थे। वह चीख-चीख कर रोने लगी। उसका रोना देखकर सुदेहा भी रोने की नौटंकी करने लगी। उस समय घुश्मा और सुधर्मा शिवजी की पूजा मे लगे थे। रोना सुनकर भी वे अपने स्थान से नहींं हिले और निरंतर पूजा करते रहे।
दोपहर को पूजा समाप्त होने पर घुश्मा ने खून से रंगी उस चारपाई को देखा किंतु दुख ना किया बल्कि अपने मन से कहा कि जिस ईश्वर ने उसको पुत्र प्रदान किया था, अब वही उसकी रक्षा करेगा।
इसके बाद घुश्मा अपनी नित्यचर्या के अनुसार सरोवर पर गई जहां उसने सभी शिवलिंगों को विसर्जित किया और लौटने लगी कि उसे अपना पुत्र सकुशल सरोवर के किनारे खड़ा दिखाई दिया। इस पर भी घुश्मा ने ना तो प्रसन्नता का कोई चिन्ह दिया ना दुख का।
उसके स्थिर भाव और भक्ति पर प्रसन्न होकर भगवान शिव वहां प्रकट हुए और उन्होनें घुश्मा से कहा कि उसकी सौतन के इन सभी कर्मों का दंड वे अपने त्रिशूल से देंगे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान की अराधना की और कहा कि सुखदा उसकी बहन है अतः उसको दंड न देकर क्षमा किया जाए। उसने कहा कि अपकार करने वाले पर भी उपकार करना चाहिए।
भगवान शिव इस बात से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होने घुश्मा से वर मांगने को कहा जिस पर घुश्मा ने उनसे वहीं स्थापित होने का आग्रह किया। भगवान शिव उसी स्थान पर एक शिवलिंग के रूप मे स्थापित हो गए जिसे घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।
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