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शिवजी का लिंगरूप होना (shiv ji ka lingroop) Shivlingam

शिवजी का लिंगरूप होना

पौराणिक कथाओं मे कई बार विभिन्नता देखने को मिलती है जहां हमे एक ही घटना के कई कारण मिल जाते हैं किंतु विशेषता यह होती है कि सभी एक दूसरे को कहीं न कहीं पूर्ण कर रहे होते हैं, एक दूसरे के मार्ग मे अवरोध नहीं होते। 

स्कंदपुराण के ब्रह्मखंड मे चतुर्मास-महात्म्य के वर्णन मे एक कथा सामने आती है जब भगवान शिव ने देवी पार्वती को राम नाम की महिमा बताई और उन्हे राम नाम की साधना के लिए भेज दिया तब वे कैलाश से उतरकर मैदानी भाग मे आए और विचरने  लगे। घूमते-घूमते वे यमुना की निर्मल धारा के समीप पहुंचे और उसके जल को देखकर उनके अंदर स्नान की इच्छा हुई। ज्यों ही वे जल मे प्रवेश किए, उनके शरीर की अग्नि से यमुना का जल काला हो गया। आप जानते होंगे कि यमुना का एक नाम श्यामा भी है।

यमुना स्नान के बाद यमुना पर कृपा करके शिवजी हाथ मे वाद्य लिए तथा माथे पे त्रिपुण्ड्र धारण करके जटा बढ़ाए इधर-उधर घूमने लगे। वे ऋषि-मुनियों के घरोंं मे विचरने लगे। कहीं भी जाते, नाचते-कूदते-गाते, एकदम मस्त, आनंद मे मग्न भोलेनाथ ऋषियों के बीच मे भी पहुंच जाते और उनके क्रिया कलापों से कई बार ध्यान मे मग्न ऋषि परेशान होते।

उनके मस्त रूप से परेशान होकर बिना उनको पहचाने ऋषियों ने शिवजी को श्राप दिया कि जा लिंगरूप हो जा और एक स्थान पर रुका रह। शिवजी तो परमानंददाता हैं, आनंदित हैं, भोले हैं। भला वे सिद्ध ऋषियों के श्राप को क्यों विफल जाने देते। उन्होनें स्वीकार किया और अमरकंटक शिवलिंग रूप मे स्थापित हो गए। यहीं से बाद मे नर्मदा नदी निकली।

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