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विलासिता से दूर: प्रेरणादायक श्लोक | रोमांच । away from lust | (Inspiring Shloks) Mythology | the romanch

किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन नयेन वा। 
किं विविक्तेन मनसा स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम्॥

जिसका मन स्त्रियों ने हर लिया उसे अपनी विद्या, तपस्या, त्याग, नीति तथा विवेकशील चित्त से क्या लाभ हुआ।

 what did he gain from his knowledge, austerity, sacrifice, policy and rational mind whose mind is lost by women.

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पद्म पुराण के पाताल खंड के वैसाख‌‌‌-महात्म्य प्रसंग मे राजा महीरथ की कथा मे यह श्लोक वर्णित है। कथा क्या है पहले यह जान लेते हैं।

बहुत समय पहले की बात है महीरथ नाम के एक बड़े राजा थे। एक बड़े सपन्न राज्य के राजा होने पर भी राजा अपने कर्तव्यों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते थे। उनके राज्य का सारा कार्य उनके मंत्री के हाथों मे था। धर्म और अर्थ दोनों से दूर राजा कामिनियों की क्रीड़ा मे लगा रहता था। इसी तरह उसने एक लम्बा समय बिता दिया।

राजा के एक विद्वान पुरोहित थे नाम था कश्यप। जब उन्होने देखा कि राजा कर्तव्यच्युत होकर राजपाट छोड़कर केवल विलास की जिंदगी जी रहा है, तब इस बात से दुखी होकर वे राजा के पास पहुंचे और बोले कि हे राजन आपके राज्य मे अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कोई भी सुरक्षित नहीं रह गया है। अराजकता हो रही है, धर्म नष्ट हो रहा है और ऐसे समय मे आप यहां विलास कर रहे हैं। आपको अपने राज्य के लिए, प्रजा के सुख के लिए, धर्म के लिए कार्य करना चाहिए।

कश्यप की बातें राजा के मस्तिष्क मे गईं। धीरे-धीरे राजा सभी व्यसनों से दूर हो गया। प्रजा के सभी वर्गों के लाभ के लिए उन्होनें प्रयत्न किया और सभी को प्रसन्न किया।पूर्व मे लम्बे समय तक व्यसन करने के कारण उनका शरीर क्षीण हो चुका था और इसी कारण से उन्हें क्षय रोग ने घेर लिया और अंत मे उनकी मृत्यु हो गई किंतु अंत समय के सत्कर्मों ने उन्हें नर्क से छुटकारा दिलाकर भगवद्धाम मे पहुंचा दिया।

ऊपर दिया गए श्लोक को पुरोहित कश्यप ने महीरथ को समझाने के लिए उपयोग किया था जिसमें उसके लिए बुराई स्त्रियों के प्रति उसकी अंध-आसक्ति थी किंतु सभी के लिए ऐसा नहीं है। कुछ के लिए स्त्रियां बुराई हैं तो कुछ स्त्रियों के लिए पुरुष, कुछ के लिए मदिरा तो कुछ के लिए अन्य बुराइयां किंतु बहुत से लोग अपने कर्तव्यों से दूर फंंसे हुए हैं।

प्रत्येक युग मे, समय के हर हिस्से में समाज मे यह समस्या रही है। जब-जब नायक, जो राजा होता है वो अथवा ऐसा कोई भी जिसके ऊपर उत्तरदायित्व होते हैं, यदि वह केवल स्वयं के आनंद के लिए कार्य करता है। यदि वह स्वयं के सुख के लिए किसी अन्य पर ध्यान नहीं देता तो इसका एक बुरा प्रभाव प्रजा पर या जो उस पर निर्भर होते हैं, उन पर अवश्य पड़ता है।

बात चाहे कंस की हो, घनानंद की हो अथवा हमारे इतिहास का कोई अन्य शासक उसके स्वयं को सुख देने की चाहत ने विनाश को जन्म दिया। प्रजा की त्राहि मे किसी न किसी को उठना पड़ा जिसने उसे समाप्त करके शांति एवं सुख का प्रयास किया।

ऐसा ही कई बार परिवारों मे भी होता है जब वह व्यक्ति जिस पर परिवार का उत्तरदायित्व है, जब वह व्यसनों मे डूबता है तब वह पूरे परिवार को बर्बादी की तरफ ले जाता है। कई बार कई पुत्र-पुत्री विरासत मे बड़ी सम्पदा पा जाते हैं और फिर अपने जीवन के मूल्य, उसके कर्तव्य से इतर वे लोग स्वयं के आनंद के लिए ही कार्य करते हैं, भोग-विलास के लिए कार्य करते हैं और उनके कुकर्मों की सजा समाज को उठानी पड़ती है।



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