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भगवान परशुराम का जन्म| रोमांच की दुनिया। पौराणिक कथा। हिंदू धर्म। (Birth of Bhagwan Parashuram)| Romanch Ki Duniya | Mythology | Hindu Dharma

भगवान परशुराम की जन्म

पुरुरवा और उर्वशी के पुत्रों के वंश मे कुशिक-वंशीय महाराजा गाधि हुए जिनकी पुत्री सत्यवती महर्षि ऋचीक को पसंद आ गई और उन्होनेंं उसका विवाह कराने के लिए गाधि से कहा। महाराजा गाधि महर्षि ऋचीक से विवाह नहीं करना चाहते थे इसलिए उन्होनें महर्षि से ऐसे एक हज़ार घोड़ों को लाने की शर्त रख दी जो पूरी तरह से श्वेत हों किंतु उनके एक-एक कान श्याम हों। महर्षि ऋचीक वरुण से एक हज़ार ऐसे ही घोड़े ले आए और तब महाराजा गाधि ने अपनी पुत्री का विवाह महर्षि से कर दिया।

काफी समय बाद सत्यवती और उसकी मां दोनों ने पुत्र चाहा जिसके लिए महर्षि ऋचीक ने अलग-अलग मंत्रों से दोनों के लिए चरु पकाया और स्नान करने चले गए। सत्यवती की मां ने यह सोचकर कि ऋचीक ने अपनी पत्नी के लिए अधिक उत्तम मंत्र उपयोग किया होगा, सत्यवती का चरु ग्रहण कर गई और सत्यवती ने अपनी मां का चरु ग्रहण कर लिया।

जब महर्षि वापस आए और उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी ने वह चरु पी लिया जो उनकी सास को पीना चाहिए था तो वे बहुत दुखी हुए। कारण यह था कि महर्षि ऋचीक ब्राह्मण थे अतः उनका पुत्र ब्राह्मण होना चाहिए जो शांत, सत्कर्म करने वाला होना चाहिए जबकि महर्षि गाधि क्षत्रिय हैं जिनका पुत्र महापराक्रमी होना चाहिए किंतु अब ये उल्टा होना था।

जब सत्यवती ने यह बात जानी तो उन्होने महर्षि से बहुत प्रार्थना की जिसपर महर्षि ने उनसे कहा कि उनका पुत्र तो ऐसा नहीं होगा किंतु उनका पौत्र वैसा ही भयंकर होगा।

सत्यवती के पुत्र के रूप मे महर्षि जमदग्नि ने जन्म लिया जो परमविद्वान एवं ब्रह्मज्ञानी थे। उनका विवाह रेणु ऋषि की पुत्री रेणुका के साथ हुआ। रेणुका से अनेक पुत्रों का जन्म हुआ जिनमें सबसे छोटे पुत्र के रूप मे भगवान परशुराम ने जन्म लिया।

हैहयवंश से अपने विनाश का प्रारम्भ करने वाले भगवान परशुराम को भगवान नारायण का छठा अवतार कहा जाता है जो पृथ्वी के आतयायी, आतंकी, अधर्मी क्षत्रियों के विनाश तथा धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुए थे। इक्कीस बार क्षत्रियों का विनाश करने के बाद उन्होनें सभी दिशाओं तथा पृथ्वी का दान करके महेंद्र पर्वत पर जाना सही समझा। 

पूर्व दिशा होता को, दक्षिण दिशा ब्रह्मा को, पश्चिम दिशा अध्वर्यु को तथा उत्तर दिशा सामगान करने वाले उद्गाता को दे दी। विदिशाएं ऋत्विजों को, सम्पूर्ण भूमि कश्यप को तथा उपदृष्टा को आर्यावर्त का दान करके वे महेंद्र पर्वत पर चले गए जहां वे शांत चित्त से तपस्या करते हैं।

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