नमस्कार दोस्तों मेरा नाम है हर्ष वर्धन सिंह और आप आए हैं रोमांच मे।
विवेक व मानसिक स्थिरता
महापुरुष शक्तियों के उपयोग मे सदैव बुद्धि व विवेक का सहारा लिया करते हैं। कब क्या कहना है, कितना कहना है और किससे कहना है इसका भी निश्चय वे शीघ्र कर लिया करते हैं यही कारण है कि उनके अंदर संंयम व व्रत की अथाह पूंजी जमा हो जाती है और सामान्य जन मानस उस शक्ति से वंचित रह जाते हैं।
प्रायः हमारे जीवन मे ऐसा होता है कि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से परेशान होकर विचारों मे मग्न होते हैं कि कोई हमारा अपना आता है और उसकी एक छोटी सी बात भी मन को तीर सी लगती है और हम अपना धीरज खोकर अनावश्यक मतभेद बना देते हैं। हम अविवेकी होकर शब्दों का ऐसा अनियंत्रित उपयोग करते हैं कि सामने वाले के ह्रदय को एक तीर सा लगता है और फिर एक सन्नाटा हो जाता है।
हम अपने क्रोध के आवेग मे यह निर्णित नही कर पाते कि क्या सही है और क्या गलत और इसके कई कारण हो सकते हैं किंतु उन सभी का सार एक ही है और वो है विवेक।
व्यक्ति का शरीर कैसा भी हो; उसके पास शारीरिक शक्ति अधिक हो या कम किंतु उसमे मानसिक स्थिरता होनी चाहिए। मानसिक स्थिरता एक ऐसी दशा है जहां आपके अंदर बहुत सी भावनाओं को सहने की क्षमता विकसित होती है। इस मानसिक स्थिरता का परिमाण शारीरिक शक्ति से अनुक्रमानुपाती है। जितना अधिक व्यक्ति बलवान हो, उतना ही उसमे विवेक हो और वह स्थिर हो।
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
हनुमान जी की शारीरिक शक्ति असीम थी किंतु उन्होने उसको नियंत्रित रखा और जब सही समय आया तब पर्वतों के समान गर्जना करके उन्होने उसको प्रदर्शित किया।
यहां अपनी शक्तियों को भूलने के लिए नही कहा जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा, गुणों व योग्यताओं को संचित करना चाहिए; उनमें वृद्धि का प्रयास करना चाहिए किंतु उनका अनावश्यक उपयोग इससे बचना चाहिए। उस शक्ति के स्वामी बनकर स्वयं को प्राथमिकता देना बहादुरी है किंतु उस शक्ति का दास बन जाना; अपने जीवन के प्रत्येक कार्य को करते समय अपने उसी गुण को केंद्र बना लेना सदैव अच्छा नही होता है।
एक आदमी था जो दौड़ के घोड़ों को प्रशिक्षित किया करता था। उसे अपनी कला का इतना अभिमान था कि एक दिन उसने एक नए घोड़े पर सवारी प्रारम्भ कर दी। बलिष्ठ घोड़े को अभी सवारी का प्रशिक्षण ठीक से प्राप्त ना होने पाया था किंतु आदमी को अपनी कला पर इतना विश्वास था कि वह उसे लेकर पठारी भूमि पर बड़े-बड़े पत्थरों पर दौड़ाने लगा। सहसा घोड़ा एक ऊंचे पत्थर के सामने हिनहिनाया और अपने आगे के दोनों पैर उठा लिया। दुर्भाग्य से आदमी फिसलकर नीचे आ गिरा किंतु उसके हाथ से रस्सी ना छूटी। उसको अपनी कला पर यूं अभिमान हो चला था कि उसने अब भी रस्सी छोड़ना उचित ना समझा और उसके सहारे घोड़े को खींचना चाहा किंतु घोड़े ने फिर से दौड़ लगाई और आदमी आगे की कुछ झाड़ियों मे फंसा और फिर बगल का एक पत्थर लुढ़ककर उसके ऊपर आ गया। बेचारा वहीं पड़ा चीखता रहा। बाद मे सब उसके सहयोगी वहां पहुंचे और उसे वहांं से निकाला तो उसके जांघ की हड्डी मे काफी चोटें आ गई थी। फिर वह भविष्य मे दोबारा ठीक से खड़ा ना हो सका।
उसकी उत्तम योग्यता ने उसे अवश्य ही बहुत से पुरुस्कार जिताये किंतु जब उसकी शक्ति अभिमान बन गई तो उसने अपने लिए व्याधि खड़ी कर ली। वह जीवन से हार गया क्योंकि उसने अपनी शक्ति अपनी योग्यता का केंद्र अपने इस गुण को बना लिया था। अब इसी तरह का एक दूसरा उदाहरण लेते हैं।
हंगरी का एक अद्भुत निशानेबाज जिसका नाम कैरोली टाक्कस था; ने अपना एक हाथ खो दिया। वह ओलम्पिक मे स्वर्ण पदक जीतने का प्रबल दावेदार था किंतु अपनी शक्ति के रूप मे अपने सबसे प्रमुख अंग को ही खो दिया इसके बाद क्या हुआ? क्या वह हार गया?
उसने स्वयं को बताया कि उसकी शक्ति का केंद्र हाथ नही बल्कि उसकी कला है जो उसके मस्तिष्क मे अभी भी स्थित है। उसके मानसिक बल ने स्थिरता पाई और उसने दोबारा अपने दूसरे हाथ से अभ्यास प्रारम्भ कर दिया और फिर उसे सफलता हासिल हुई।
कहने का तात्पर्य यह है कि शक्ति का प्रमुख केंद्र मस्तिष्क मे होना चाहिए जिस पर विवेक का अधिपत्य हो ताकि जीवन के किसी क्षण यदि आपकी किसी अन्य शक्ति का ह्रास हो तो वह आपकी पुनः खड़े होने मे मदद करे।
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